Bhagwat Geeta in Hindi PDF | संपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
Bhagwat Geeta in Hindi pdf: श्रीमद्भगवद्गीता’ महासमर में क्लान्त अर्जुन के प्रति कहे गये श्रीकृष्ण के उद्बोधन वाक्य हैं परन्तु इनमें समस्त भारतीय दर्शन और चिन्तन का सार समाविष्ट है। जैसे अर्जुन को अपने कर्तव्य का स्मरण हुआ, वैसे ही जगत के मोहग्रस्त जीवों के जागरण का भी यह अमर उद्घोष है। गीता हमारा पथ भी है, पाथेय भी, पथदर्शक भी है और पथ का गंतव्य भी। दार्शनिक ऊंचाइयों को छूने वाला यह ग्रंथ वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण जीवन के व्यावहारिक पक्ष से जुड़ा हुआ है। मृत प्राणी की अमरता का अभिलेख है। अतः इसकी चेतना हम भारतीयों के रोम-रोम में विद्यमान है, यह हमारी संस्कृति का आधार है, हमारे श्वास-प्रश्वास की संरचना है।
Bhagwat Geeta ने सम्पूर्ण मानव-जाति को अपने ज्ञान से पुलकित किया है, विश्व के श्रेष्ठतम विचारकों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, इसे सर्वोत्तम ज्ञान की मंजूषा बताया गया है और इसके प्रकाश में उन्होंने भी अपने चिंतन का पथ निर्मित किया है।
श्रीमद्भगवद्गीता श्रीकृष्ण भगवान की दिव्यवाणी है। इस रहस्यमय ग्रंथ का अर्थ भक्तवत्सल भगवान मुकुन्द की कृपा से ही समझ में आता है। गीता वर्ण, आश्रम, देश, काल, सम्प्रदाय, लिंग इत्यादि के बंधन से मुक्त सार्वभौम ग्रंथ है। गीता में परमगति प्राप्त करने के लिए अनेक साधन कहे गये हैं। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार मनुष्य किसी भी साधन को अपनाकर अपना अभीष्ट मनोरथ सिद्ध कर लेता है।
Bhagwat Geeta in Hindi pdf | गीता के अनुसार आत्मा, परमात्मा, कर्म और त्याग क्या है?
- आत्मा – इस संसार में दृश्यमान सभी कुछ नाशवान है। जिसका जन्म होता है उसका एक दिन मरण भी अवश्य होगा। इसीलिए शरीर प्रत्येक युग में जन्मता मरता रहता है। यह समझकर ज्ञानीजन शरीर के सम्बन्ध में मोह नहीं करते। किन्तु शरीर में विद्यमान आत्मा, अजन्मा अविनाशी, अक्षर, अव्यय और नित्य है। वह लाख उपाय करके भी नष्ट नहीं किया जा सकता।
अज्ञानी शरीर और आत्मा में भेद-दृष्टि नहीं रख पाते, इसीलिए दुःखी सुखी होते हैं। इसी भ्रम के कारण वे सत्कर्म, और सद्धर्म से वन्चित भी रह जाते हैं जबकि किसी भी स्थिति में किसी बात का प्रभाव आत्मा पर नहीं पड़ता। वह पाप लिप्त भी नहीं होता। वह अचल सनातन नित्य एक रूप ही रहता है। इस तथ्य को जानने वाला आत्मस्थ पुरुष मोह के कारण कर्तव्य मार्ग से विचलित नहीं होता। उसकी बुद्धि भी स्थिर और अडिग रहती है। निश्चल बुद्धि से किये गये अल्प साधन भी उत्तम फल दायी होते हैं।
परमात्मा – लोक वेद में प्रसिद्ध पुरुषोत्तम ही परमात्मा है। वह स्वयं प्रकाश किसी से प्रकाशित नहीं होता। अपितु सूर्य, चन्द्र नक्षत्रादि उसी के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं अखिल ब्रह्माण्ड के कण-कण में वह विद्यमान है। संसार में जो भी सर्वोत्तम सर्वोत्कृष्ट हैं, वह परमात्मा-तत्व ही है। ब्रह्माण्ड में समस्त ज्ञान सौन्दर्य, तेज, बल उसी परमात्मा का ही रूप है। सत् और असत् से परे वह इन्द्रिय रहित होकर भी विषयों का भोक्ता है।
वह संसार में उसी प्रकार पिरोया है, जैसे मणियों में सूत्र पिरोया होता है। यद्यपि वह समस्त सृष्टि का कर्ता पोषक है और जीवों के शरीर में भी रहता है, किन्तु लिप्त नहीं होता। वह अति सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय तथा अति विराट होने के कारण अप्रमेय है। उसकी सत्ता अनंत एवं ज्ञान असीम है। वह अनन्त ऐश्वर्य एवं विभूतियों का स्वामी है। कोई भी भगवत्परायण श्रद्धावान व्यक्ति जो उसे मन बुद्धि कर्म समर्पित कर अनन्य भक्ति से भजता है, वह उसे प्राप्त कर सकता है। उस परमात्मा की प्राप्ति में मन का अचल स्थापन नित्य अभ्यास, वैराग्य, फल त्याग आदि सहायक सिद्ध होते हैं। मन इन्द्रियों को वश में रखने वाला दृढ़ निश्चयी हर्षामर्श उद्वेग रहित जो शीत-उष्ण मानापमान सिद्धि-असिद्धि को एक सदृश समझता है वह आत्मतुष्ट योगी भगवत्प्राप्ति में सफल होता है। दैवी सम्पत्ति सम्पन्न व्यक्ति सहज ही परमात्म तत्व का अधिकारी बन जाता है।- कर्म – गीता स्वयं कर्म संहिता है। इसमें नियत, काम्य एवं निषिद्ध कर्मों के साथ कर्म अकर्म की भी विवेचना है। शास्त्र विहित यज्ञ, दान, तप आदि कर्म ज्ञानवान् को पवित्र करते हैं, अतः करने योग्य होते हैं। पुत्र कलत्र धन समृद्धि की कामना से किये गए कर्म काम्यकर्म कहलाते हैं। चोरी, झूठ, कपट, छल, हिंसा आदि स्वार्थ के लिए किये जाने वाले निषिद्ध कर्म दूषित होने से त्याज्य हैं।
कर्म त्याग मात्र से कोई संन्यासी योगी नहीं हो जाता, जब तक संकल्पों कामनाओं का त्याग न हो। बाहर से मन को वश में करने का दिखावा करने वाले किन्तु अन्दर से दूषित कामनाएँ पालने वाले दम्भी होते हैं।
निरासक्त भाव से सभी कर्म परमेश्वर को अर्पण किए बिना मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त नहीं हो पाता। ज्ञानी एक क्षण में कर्मफलों को त्याग देते हैं। कर्म त्यागने से कर्म करना सदैव श्रेष्ठ है। संसार चक्र संचालन के लिए परमात्मा को भी कार्य करना पड़ता है। कर्म में फलासक्ति से काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि विकार उपजते हैं। फलेच्छा का त्याग ही निष्काम कर्म है। जो अन्तः प्रेरणा से अनासक्त भाव से दूसरों के हित के लिए करुणावान हो कर्म किए जाते है, वे श्रेष्ठ कर्म हैं जब चित्त वृत्तियों को एकाग्रकर द्वन्द्व रहित हो एकीभाव से परमात्मा में चित्त नियुक्त करते हैं, तभी योग होता है। - त्याग – सर्व भवोद्भव त्याग को त्याग कहा गया है। समस्त कामनाओं संकल्पों फलेच्छाओं को त्याग देने वाला संन्यासी होता है। कुछ निषिद्ध एवं काम्य कर्मों के त्याग को भी त्याग कहते हैं जब कि नियत कर्म यज्ञ, दान, तप आदि सत्कार्य त्याज्य नहीं होते। अपितु इनके विधान में प्रमाद त्याज्य है। सामान्यतया आसक्ति, वासना, अहंभाव के त्याग को प्रमुख त्याग के रूप में स्वीकार किया गया है। सत्कर्म में गहरी रूचि, परम पुरुषार्थ में उत्साह, निःस्वार्थ पर सेवा आदि त्यागी व्यक्ति के जीवन में उत्साह, प्रेम, प्रसन्नता शान्ति एवं आनन्द भर देते हैं।
ब्रह्म विद्या से समुपबृंहित गीता कर्म योग का प्रतिपादक विश्व-विश्रुत ग्रन्थ रत्न है। यह ज्ञान क्षीराब्धि का नवनीत है। संपूर्ण वाङ्मय को यदि वासन्तिक पराश्री कहें, तो गीता निश्चय ही नवीन सहकार की दिव्य मन्जरी है। परमानन्द की अनुभूति के लिए गीता ज्ञान कर्म और भक्ति की त्रिवेणी-संगम का नव्य प्रयाग है। वेद शास्त्रोपनिषद् भारतीय वाङ्मय में जो विशिष्ट ज्ञान धारा प्रवाहित हुई है, उसमें गीता ज्ञान गंगा का विशेष महत्व है।
श्रीमद्भागवत गीता का एक संदेश – दूसरों का हित करना सबसे बड़ा धर्म
Bhagwat Geeta in Hindi pdf: इस विशाल सृष्टि में मानव ऐसा प्राणी है, जिसमें विवेक का प्राधान्य होता है। अपने विवेक के माध्यम से उसने अनेक प्रकार के उद्यम करके वैज्ञानिक और तकनीकी उन्नमि की है। इस उन्नति का लक्ष्य जीवन को सुखी बनाना है। सुख प्राप्त करने की उसकी यह अभिलाषा धीरे-धीरे बढ़ती चली जाती है। जब सुख के साधन केवल भौतिक सुखों तक ही सीमित रह जाते हैं, तो धीरे-धीरे स्वार्थ और ‘स्व’ की भावना बढ़ने से मनुष्य दूसरों के हित-अहित की चिंता किए बिना अपने ही सुख-साधनों को बढ़ाने में जुट जाता है।
इससे समाज के साधन-हीन वर्ग निरंतर शोषण की चक्की में पिसने लगते हैं। समाज में असंतुलन उत्पन्न होने और शोषण बढ़ने से असंतोष, अराजकता एवं अनैतिकता को बल मिलता है। प्रकृति भी इस मानवीय शोषक का शिकार होती है और अंततः इससे प्राकृतिक आपदाएं भी आने लगती है। मानव का पूर्ण और प्राकृतिक जीवन केवल लिप्सा, भोग और कामनाओं के जाल में घिर जाता है। इससे मानवता के समर्थक दुख पाते है। लेकिन इसका एक पक्ष और भी है, कि निजी स्वार्थ से उठकर कुछ लोग मानवता की भलाई में ही अपने जीवन को समर्पित कर देते हैं।
परहित का अर्थ:- परहित दो शब्दों के योग से बना हैं – पर हित। पर का अर्थ है – अपनों से अतिरिक्त कोई भी दूसरा तथा हित का अर्थ है- भलाई। अतः इस शब्द का अर्थ है – दूसरों की भलाई। दूसरों का अर्थ है – वे लोग, जो हमारे अपने नहीं हैं, जिनसे हमारा कोई स्वार्थ नहीं है। कभी-कभी हम अपने नाते-रिश्ते के लोगों प्रति भी करूणा की भावना रखकर उनका हित करते हैं। लेकिन अपने प्रियजन-परिजन, नाते-रिश्तेदारी का हित करना वास्तव में मनुष्य का नैतिक कर्तव्य होता है। इसे सहायता रूप में जाना जा सकता है। इसका भी महत्व होता है और यह सद् कर्म है, मानवीयता है और मानव का धर्म भी है।
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लेकिन परहित इससे भिन्न अर्थ संकेतित करता है। जब अपने हित-अहित, लाभ-हानि का ध्यान रखे बिना, दूसरे लोगों का हित, उनकी भलाई की जाती है तो यही कर्म परहित कहलाता है। परहित करने वाला व्यक्ति परोपकारी होता है। सभी प्रकार की कामना और इच्छाओं को त्यागकर ही वह दूसरों की सेवा करता है।
भारतीय संस्कृति में पाप और पुण्य की चर्चा भी होती है। व्यवहार और चरित्र के धरातल पर ये दो मूल्य माने गए हैं। अपना हित सोचना मानव का कर्तव्य है और धर्म भी। लेकिन अपने हित के कार्यों को इस प्रकार करना कि दूसरों को किसी प्रकार की हानि न उठानी पड़े, यह उससे भी श्रेष्ठ कर्म है। इनके अतिरिक्त तीसरा पक्ष भी है- अपने हित-अहित की चिंता किए बिना, जब कोई मानव दूसरों की सेवा या सहायता करता है तो यह श्रेष्ठ कर्म परहित होता है।
विश्व इतिहास और साहित्य में इस प्रकार के अनेक चरित्र हुए हैं, जिनमें ईसा मसीह, बुद्ध, गांधी, नानक, दयानंद सरस्वती, राम कृष्ण, भगत सिंह, चंद्रशेखर, सुभाषा आदि महान व्यक्तित्व हैं। इन महान चरित्रों में यही समानता देखी जाती है कि इनके कार्यों से लोगों को पीड़ा और दुख से मुक्ति मिली तभी वे सुख ओर बढ़े हैं।
परहित और जीवन:- मनुष्य का अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी और संतान की सेवा करना सबसे प्रथम कर्तव्य है। यथा-योग्य इनका भरण-पोषण उसका धर्म बन जाता है। उसके कर्तव्य की सीमा यहीं तक सीमित नहीं रहती है, अपितु अपने सगे-संबंधियों के प्रति भी उसका कुछ कर्तव्य होता है। यहीं त कवह सीमित नहीं रहता है, उसे समाज के प्रति भी उत्तरदायी बनना होता है। समाज के साथ ही देश और अंततः विश्व के प्रति वह किसी न किसी रूप में जवाबदेही बनाता है।
वर्तमान विश्व में आज जो अराजकता, अनैतिकता, हिंसा, उग्रवाद, प्राकृतिक आपदाएं तथा युद्ध का जो संकट छाया हुआ है, उसके मूल में परहित की अपेक्षा ‘स्वहित’ को ही कर्म माना गया है। आज का स्वार्थी और लिप्सा में डूबा हुआ व्यक्ति दूसरों का शोषण कर अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में डूबा हुआ है। छोटी-छोटी बातों के लिए, क्षुद्र स्वार्थ के लिए हत्या कर देना साधारण-सी बात मानता है। सामाजिक असंतोष, प्रदर्शन, आगजनी, हड़ताल, घेराव आदि शब्द इस व्यवस्था से उपजे हुए हैं।
मनुष्य विवेकशील होने के साथ-साथ संवेदनशील होता है। अन्य जीवधारियों से उसे ये तथ्य अलग कर देते है। पशु में भी भूख, काम की भावना होती है। इनकी पूर्ति के लिए उसे कोई भी बंधन नियम और व्यवस्था को नहीं समझना पड़ता है। मानव की सामाजिक भावना उसे व्यवस्था में बांधती है। अतएव परहित ही वह आधार है, जो सबके ही सुख का कारण होता है।
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